न जाने उनमें ये कौन सी तब्दीली है, जो अब हम में सिर्फं तब्दीलियां ही गिनाए जाती है.... -आशिमा
ashimawrites
freelance writer
Tuesday, January 24, 2017
Sunday, January 1, 2017
बंदूक से निकलती सामंती कुंठा
‘मेरे अग्गे नहीं चलणी, मोडे टंगी दुनाली’, ‘चक लो रिवाल्वर’, ‘मितरां नु शौक गोलियां चलौण दा’..! ऐसे गानों की थरथराती धुन पर अकसर हमने लोगों को पार्टियों में झूमते हुए देखा है। बंदूकों और हथियारों पर स्वामित्व की दादागिरी का बखान और महिमामंडन करते ये गीत हमारे समाज के उस कड़वे सच से रूबरू कराते हैं, जिसके मुताबिक हाथ में बंदूक आपको किसी की जान लेने का खौफनाक ठेकेदार बना देती है। सवाल है कि आखिर जो चीज जानलेवा है, उस पर मालिकाने का बखान समाज में पसरी कैसी मानसिकता की ओर इशारा करता है और उसी का बखान ये गीत करते हैं।
बीते दिनों पंजाब के बठिंडा में एक शादी समारोह में मंच पर डांस कर रही युवती पर गोली चलने की खबर आई। आखिर वह सिर्फ इसलिए मारी गई कि मंच पर जाकर उन युवतियों के साथ डांस करने से कुछ युवकों को मना कर दिया गया था। महज एक मनाही के बाद वह कौन-ग्रंथि थी कि उसने किसी को सीधे बंदूक से गोली चला कर जवाब देने को मजबूर किया? क्या यह पुरुष अहं से उपजी उस कुंठा पर लगी ‘चोट’ थी, जो पैदा होने के बाद से ही उसमें कूट-कूट कर भरी जाती है? क्या हम याद कर सकते हैं कि अपने बच्चों को लेकर जब खिलौना खरीदने जाते हैं तो वहां कोई गुड्डा-गुड़िया के बजाय बंदूक या पिस्तौल उसकी पसंद होता है। ऐसा करते हुए हम एक बार भी नहीं सोचते कि इस तरह के हिंसा का संदेश देने वाले खिलौने एक बच्चे के मनोवैज्ञानिक ढांचे को कैसे प्रभावित करते हैं।
हाथ में बंदूक होना, यानी पावर होना, सत्ता होना। शक्ति और सत्ता के समीकरण ने समाज में कैसा बर्ताव रचा है, यह हम सब जानते-समझते हैं। एक लड़की के ‘नहीं’ कहने पर हत्या कर देना जैसे इस समाज के लिए एक सामान्य घटना की तरह स्थापित है। बठिंडा में डांसर की हत्या की खबर के साथ ही मुझे काफी पहले का जेसिका लाल मर्डर केस याद आया। बात बस इतनी थी कि शराब परोसने के लिए लड़की ने मना कर दिया और लड़के ने गुस्से में सीधा गोली चला दिया। यानी जेसिका लाल की हत्या के बाद इतने सालों के बाद भी सार्वजनिक समारोहों तक में मर्द कुंठा और अहं एक रिवायत के रूप में अब भी ज्यों की त्यों कायम है। स्टेज पर साथ डांस करने से मना करने पर सीधा गोली चला देना। दोनों घटनाओं के वक्त में लंबा फासला है, लेकिन प्रकृति बिल्कुल एक। दोनों ही घटनाएं एक ही तरह की बात की तरफ इशारा करती हैं, एक जैसा सवाल और खौफ पैदा करती हैं!
बचपन में खासकर लड़कों को खिलौनों में बंदूक खरीद कर देने का औचित्य समझ के बाहर है। बच्चे बंदूकों से खेलते-खेलते कैसे भोली जुबान में ‘ढिश्क्याऊं-ढिश्क्याऊं’ बोलते हैं, क्या उन्हें अंदाजा भी हो पाता है कि इस आवाज के साथ किसी की जान भी जा सकती है। उस बच्चे को क्या पता कि बंदूक से खेल उसके भीतर की इंसानी संवेदनाओं को कैसे चुपचाप छीन लेता है!
अकेले यही हमारी सामाजिक समस्या नहीं है। आम बोलचाल की भाषा में भी किसी बात के प्रति झुंझलाहट दिखाने के लिए ‘फलां बात को गोली मारो’, ‘डांट तो दिया उसको... अब क्या उसे गोली मार दूं...’ जैसी बातें इस्तेमाल की जाती हैं। निश्चित तौर पर बंदूकों और तमाम हथियारों का एक समाजशास्त्र होता है, जिसमें आमतौर पर इसका शिकार कमजोर होता है और इससे ताकतवर की सत्ता कायम होती है। लेकिन इसके साथ समाज से लेकर भाव तक के मामले में सत्ता का जो मनोविज्ञान जुड़ा हुआ है, वह एक मानवीय समाज को उसकी संवेदनाओं से दूर करता है।
हालांकि समाज में इस संदर्भ में बिल्कुल अलग उदाहरण भी खोजे जा सकते हैं। कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जिसने मजबूरी में बंदूक उठा लिया हो। इसके अलावा, फौज, पुलिस जैसे महकमे भी हैं जो अपनी ड्यूटी के लिए बंदूक हाथ में रखते हैं। लेकिन यह मजबूरी में उठाए गए बंदूक से बिल्कुल अलग संदर्भ में होता है। इसमें कोई शक नहीं कि आम जिंदगी में हथियार उठाना किसी भी मायने में उचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अत्याचारों से त्रस्त कोई व्यक्ति जब हथियार उठाने पर मजबूर होता है तो उसके मायने अलग होते हैं। यह उस शौक और सत्ता के अहं के बरक्स होता है जिसके पीछे ताकत की एक सामंती और मर्दवादी कुंठा होती है। जरूरत इस बात ही है कि समाज के छोटे बच्चों को इस कुंठा से बचाने के लिए उसे बंदूक की ताकत से दूर रखा जाए।
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